Chin Me Saat Din

Fiction & Literature, Classics
Cover of the book Chin Me Saat Din by Dinesh Kumar Mali, onlinegatha
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Author: Dinesh Kumar Mali ISBN: 1230000864916
Publisher: onlinegatha Publication: December 30, 2015
Imprint: Language: English
Author: Dinesh Kumar Mali
ISBN: 1230000864916
Publisher: onlinegatha
Publication: December 30, 2015
Imprint:
Language: English

चीन की साहित्यिक यात्रा मेरे लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण थी। जैसे ही चार-पांच महीने पूर्व डॉ. जय प्रकाश मानसजी की इस बार चीन में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजन किए जाने की घोषणा अंतरजाल पर पढ़ी, वैसे ही मन ही मन ह्वेनसांग व फाहयान के चेहरे उभरने लगे, दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक आश्चर्य चीन की दीवार आँखों के सामने दिखने लगी और चीन की विकास दर का तेजी से बढ़ता ग्राफ मानस-पटल पर अंकित होने लगा। याद आने लगा वह पुरातन भारत जिसमें ह्वेनसांग,शुयान च्वांग व फाहयान चीन से यहाँ पढ़ने आए होंगे,तब चीन कैसा रहा होगा और नालंदा व तक्षशिला विश्वविद्यालय के वर्तमान खंडहर खोज रहे होंगे अपनी जवानी को उनकी पुस्तक "ट्रेवल टू इंडिया" के संस्मरणों में। तब चीन विपन्न था। कांग यौवे ने चीन की दोहरी दुनिया का खुलासा किया था - चीन में चारो तरफ भिखारी ही भिखारी नजर आते थे,बेघर,वृद्ध,लावारिस रोगी सड़कों पर दम तोड़ते दिखाई देते थे। यह बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सन 1895 के आस-पास की बात रही होगी। जबकि सातवी शताब्दी ईसवी में ह्वेनसांग भारत अध्ययन के लिए आया था तथा उसने नालंदा विश्वविद्यालय के अनूठी अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यतियों की संख्या ज्यादा थी। भारत से लौटे यात्री शुयान च्वांग को याद करते हुए वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने अपनी कविता "जंगली बत्तखों वाला पैगोड़ा" में लिखा:-
ओ! महाभिक्षु यात्री शुयान च्वांग
आज मैं आया हूँ भारत के पाटलीपुत्र से
शताब्दियों बाद उसी नालंदा के पास का एक क्षुद्र कवि
स्वीकार करो मेरा प्रणाम
तुम्हारे कपाल की अस्थि चमक रही है
स्मरण कर अपने धूल-धूसरित दिन बुद्ध की धरती के
वे जंगली बत्तख जो एक शाम कभी उड़ते हुए आये
फिर हर शाम आये
इतना शांत पवित्र था गगन यहाँ
इतनी हल्की पानी से छनी हवा

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चीन की साहित्यिक यात्रा मेरे लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण थी। जैसे ही चार-पांच महीने पूर्व डॉ. जय प्रकाश मानसजी की इस बार चीन में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजन किए जाने की घोषणा अंतरजाल पर पढ़ी, वैसे ही मन ही मन ह्वेनसांग व फाहयान के चेहरे उभरने लगे, दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक आश्चर्य चीन की दीवार आँखों के सामने दिखने लगी और चीन की विकास दर का तेजी से बढ़ता ग्राफ मानस-पटल पर अंकित होने लगा। याद आने लगा वह पुरातन भारत जिसमें ह्वेनसांग,शुयान च्वांग व फाहयान चीन से यहाँ पढ़ने आए होंगे,तब चीन कैसा रहा होगा और नालंदा व तक्षशिला विश्वविद्यालय के वर्तमान खंडहर खोज रहे होंगे अपनी जवानी को उनकी पुस्तक "ट्रेवल टू इंडिया" के संस्मरणों में। तब चीन विपन्न था। कांग यौवे ने चीन की दोहरी दुनिया का खुलासा किया था - चीन में चारो तरफ भिखारी ही भिखारी नजर आते थे,बेघर,वृद्ध,लावारिस रोगी सड़कों पर दम तोड़ते दिखाई देते थे। यह बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सन 1895 के आस-पास की बात रही होगी। जबकि सातवी शताब्दी ईसवी में ह्वेनसांग भारत अध्ययन के लिए आया था तथा उसने नालंदा विश्वविद्यालय के अनूठी अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यतियों की संख्या ज्यादा थी। भारत से लौटे यात्री शुयान च्वांग को याद करते हुए वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने अपनी कविता "जंगली बत्तखों वाला पैगोड़ा" में लिखा:-
ओ! महाभिक्षु यात्री शुयान च्वांग
आज मैं आया हूँ भारत के पाटलीपुत्र से
शताब्दियों बाद उसी नालंदा के पास का एक क्षुद्र कवि
स्वीकार करो मेरा प्रणाम
तुम्हारे कपाल की अस्थि चमक रही है
स्मरण कर अपने धूल-धूसरित दिन बुद्ध की धरती के
वे जंगली बत्तख जो एक शाम कभी उड़ते हुए आये
फिर हर शाम आये
इतना शांत पवित्र था गगन यहाँ
इतनी हल्की पानी से छनी हवा

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